Thursday, August 25, 2011

पौरुष का परिचय कराना होगा

शहीद हो रहा है सूरज इंसानियत का आज
ख़ामोशी शाम की ये गूंजती है कानों में
कतरे खून के अभी भी बिखरे हैं उफक पर
दरिंदगी सरे आम बिकती है आज दुकानों में

जिम्मेवारी अब इन चाँद सितारों की ही है
माहोल सुबह तक आपे से बाहर जाने न पाए
कोई सूरज उठने की हिम्मत भी न कर सके
कि ये अँधेरा इतना भी दिलों पे छाने न पाए

दिया सत्य का हर एक घर में आज जलाना होगा
हो जब तक न सुबह धैर्य हमको दिखाना होगा
संभव नहीं की भगत एक भी जन्मा न हो माँ ने मेरी
सपूतों को फिर एक बार पौरुष का परिचय कराना होगा

Tuesday, August 16, 2011

क्या टीम अन्ना के पास और कोई मार्ग शेष है?


आज सरकार, अनेक सामाजिक कार्यकर्ता, राजनीतिक एवं विधि विचारक संविधान और भारत की मजबूत संसदीय व्यवस्था की दुहाई देकर अन्ना हजारे द्वारा चलाये जा रहे भ्रष्टाचार के विरुद्ध और एक मजबूत लोकपाल बिल के समर्थन में आन्दोलन का विरोध कर रहे हैं. उनके अनुसार आमरण अनशन के मार्ग का उपयोग करके वो सरकार के ऊपर एक मनमाने लोकपाल बिल के कानून को लागू करने का प्रयास कर रहे हैं, जो अधिकार एक लोकतान्त्रिक संसदीय व्यवस्था में मात्र संसद को दिया गया है. उनके अनुसार, यह न केवल भारत की संसदीय व्यवस्था के लिए घातक है, बल्कि भविष्य के लिए आमरण अनशन के प्रयोग का एक गलत उदारहरण भी हो सकता है. कुछ देर के लिए मैं इस तर्क को सही मान लेता हूँ, तो अगला प्रश्न यह उठता है की हमारे पास विकल्प क्या है. जिस गणतंत्र में एक नागरिक गंगा नदी के शुद्धिकरण के लिए अनशन करते करते प्राण दे देता है और सरकार मीडिया के उल्लेख के अभाव में उस पर ध्यान तक नहीं देती, जिस देश में इरोम शर्मीला १० साल से आमरण अनशन कर रही है और सरकार उसकी समस्याओं के लिए कुछ नहीं कर सकती, उस सरकार तक अपनी आवाज पहुचने के लिए क्या टीम अन्ना के पास और कोई मार्ग शेष बचता है?  

यदि हम इस पूरे प्रकरण को शुरुआत से देखें तो तस्वीर थोड़ी और साफ़ होगी. अक्टूबर २०१० के आसपास टीम अन्ना ने सत्ता गठबंधन की अध्यक्षा सोनिया गाँधी, पक्ष एवं विपक्षी पार्टियों के अनेक सदस्यों से ४० साल से लटकते आ रहे लोकपाल बिल के बारे में चर्चा आरम्भ की. वो अपनी तरफ से पूरी जिम्मेदारी और गंभीरता के साथ लोकपाल बिल के लिए एक मसोदा बनाकर भी इन सबके पास ले गए. विचार विमर्श के अनेक प्रयासों के बाद भी इनमे से किसी की भी तरफ से कोई निश्चित आश्वासन नहीं मिला. ऐसी स्थिति में टीम अन्ना ने प्रधानमंत्री को इस विषय पर एक पत्र लिखा और फिर उनसे मुलाकात भी की. इस मुलाकात में प्रधानमंत्री ने उनको आश्वासन दिया की बिल को शीघ्र ही संसद में लाया जायेगा. परन्तु कुछ महीनो के इन्तेजार के बाद पुनः प्रधानमंत्री से मुलाकात की गई और इस मुलाकात में अंततः जब अन्ना जी ने अपने आमरण अनशन पर बैठने की बात कही तब धीरे धीरे मीडिया का ध्यान भी इस विषय पर गया. सरकार की तरफ से कोई ठोस कदम नहीं उठा और अप्रैल के पहले हफ्ते में अन्ना जी का अनशन शुरू हुआ. ४ दिन के अनशन के पश्चात सरकार एक संयुक्त समिति बनाने को तैयार हुई. इसमें अन्ना जी समेत ५ सरकार द्वारा मनोनीत सदस्य और ५ लोग टीम अन्ना के शामिल हुए. कई बैठकों में टीम अन्ना ने अपने बिन्दुओं को पूरी ईमानदारी के साथ समिति के सामने रखने की कोशिश की. बिन्दुवार चर्चा करना तो दूर सरकार के प्रतिनिधियों ने पूरे तानाशाही रवैय्ये में टीम अन्ना द्वारा सुझाये गए कुछ मुद्दों को छोड़कर लगभग सारे महत्वपूर्ण बिन्दुओं को बिना कोई कारन दिए सिरे से ख़ारिज कर दिया. यहाँ तक की पहले से सहमत होने के बाद भी सरकार ने इन बैठकों के ऑडियो रेकॉर्ड्स को भी जनता के सामने नहीं रखा. और अब जब सरकार ने एक पूर्णतः बेमतलब और कमजोर लोकपाल बिल को संसद में पेश कर दिया है तो क्या इन सदस्यों के पास और कोई रास्ता बचता है?

जो लोग यह कह रहे हैं की टीम अन्ना को लोकतान्त्रिक व्यवस्था का सम्मान करते हुए संसदीय प्रणाली से कानून में हस्तक्षेप करने का प्रयास करना चाहिए, वो आमरण अनशन के पहले उनके द्वारा किये गए प्रयासों को क्या कहेंगे? क्या उन्होंने पहले दिन से आमरण अनशन की घोषणा कर दी थी? सारे लोकतान्त्रिक मार्गों से प्रयास कर देखने के बाद जब कोई मार्ग शेष नहीं बचा तब उन्होंने यह मार्ग अपनाया है. सरदार भगत सिंह ने शायद सही ही कहा था ऊंचा सुनने वाली सरकार को अपनी बात सुनाने के लिए बम के धमाके का ही सहारा लेना पड़ता है. उसी तरह जो सरकार अपनी जनता की गरीबी और मजबूरी को देखने में समर्थ न हो, उसके ध्यानाकर्षण के लिए आमरण अनशन जैसा कठोर मार्ग ही शेष रहता है. क्या टीम अन्ना के पास और कोई मार्ग शेष है?