Wednesday, March 9, 2011

शून्य की तलाश

न जाने क्यूँ कभी कभी
भारी लगने लगता है हर एक पल
सब छोड़कर मन पड़ा रहना चाहता है बस
बिलकुल निष्क्रिय अवस्था में
यूँ लगता है जैसे
कही कुछ छूट गया है राह में
या फिर शायद
कही कोई गलत मोड़ ले लिया
उलझे हुए ख्याल एक जाल सा बुन देते हैं
दिमाग के चारों तरफ
और छटपटाता है मन बाहर निकलने को
मगर हर खिड़की दरवाजा लगता है जैसे
एक अँधेरे कमरे में ही जाकर खुलता है
और फिर जिस तरह जाल में फसी मछली
असहाय होकर कर देती हैं अंत में आत्म-समर्पण
उसी तरह मुक्त कर देता हूँ मैं भी मन को
विचरण करने को
असीम संभावनाओं के उन्मुक्त आकाश में
इसी उम्मीद में कि
शायद इसी पीड़ामई साधना के अंत में
इन व्यापक अंधेरों का समाधान ढूंढकर ही
ख़त्म होगी तलाश एक दिन शून्य की